भारत में मानवाधिकारों की स्थिति
भारत में मानवाधिकारों की स्थिति
देश के विशाल आकार और विविधता, विकासशील तथा संप्रभुता संपन्न धर्मनिरपेक्ष, लोकतांत्रिक गणतंत्र के रूप में इसकी प्रतिष्ठा तथा पूर्व में औपनिवेशिक राष्ट्र के रूप में इसके इतिहास के परिणामस्वरूप भारत में मानवाधिकारों की परिस्थिति एक प्रकार से जटिल हो गई है।
- भारत का संविधान मौलिक अधिकार प्रदान करता है, जिसमें धर्म की स्वतंत्रता भी निहित है। इन्हीं स्वतंत्रताओं का फायदा उठाते हुए आए दिन सांप्रदायिक दंगे होते रहते हैं। इससे किसी एक धर्म के मौलिक अधिकारों का हनन नहीं होता है बल्कि उन सभी लोगों के मानवाधिकार आहत होते हैं जो इस घटना के शिकार होते हैं तथा जिनका घटना से कोई संबंध नहीं होता जैसे- मासूम बच्चे, गरीब पुरुष-महिलाएँ, वृद्धजन इत्यादि।
- दूसरी तरफ, भारत के कुछ राज्यों से अफस्पा कानून इसलिये हटा दिये गए क्योंकि इस क़ानून के ज़रिये सैन्य-बलों को दिए गए विशेष अधिकारों का दुरूपयोग होने की वारदातें सामने आने लगीं। उदाहरण के तौर पर बिना वारंट किसी के घर की तलाशी लेना; किसी असंदिग्ध व्यक्ति को बिना किसी वारंट के गिरफ्तार करना; यदि कोई व्यक्ति कानून तोड़ता है, अशांति फैलाता है, तो उसे प्रताड़ित करना; महिलाओं के साथ दुर्व्यवहार करना इत्यादि ख़बरें अक्सर अखबारों में रहती थीं।
- लिहाज़ा यहाँ सवाल उठता है कि आज़ादी के इतने वर्षों बाद भी भारत में मानवाधिकार पल-पल किसी-न-किसी तरह की प्रताड़ना का दंश झेल रहा है। ऐसे में यह जानना ज़रूरी हो जाता है कि ऐसी कौन-सी चुनौतियाँ हैं जिनके कारण NHRC मानवाधिकारों की रक्षा करने में खुद को लाचार पा रहा है।
